देश की आजादी में लालगंज के शहीद चाचा-भतीजा की कुर्बानी एक नजर में…

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शहीद बैकुंठ शुक्ला।

अजीत सिंह और भगत सिंह भारत की आज़ादी के दो ऐसे पंजाबी सिपाही हैं,जो रिश्ते में चाचा-भतीजे थे और दोनों की ही ज़िंदगी का मक़सद अपनी मातृभूमि के लिए क़ुर्बान हो जाना था। मगर,क्या आपको मालूम है कि बिहार के भी दो ऐसे क्रांतिकारी सिपाही हुए हैं,जो रिश्ते में चाचा-भतीजे थे और जिस तरह सरदार भगत सिंह ने मातृभूमि के लिए जान दे दी थी,उसी तरह बिहार के भी बैकुंठ शुक्ल ने भगत सिंह को फांसी के तख़्ते तक पहुंचाने वाले की हत्या करके फांसी के फंदे को चूम लिया था। शहीद बैकुंठ शुक्ला के चाचा जाने-माने क्रांतिकारी योगेन्द्र शुक्ल थे।

शहीद बैकुंठ शुक्ला व शेरे बिहार योगेन्द्र शुक्ला।

योगेन्द्र शुक्ला का जन्म जलालपुर में हुआ था।उस समय यह गांव मुज़फ़्फ़रपुर ज़िले के तहत आता था,लेकिन अब यह वैशाली ज़िले का हिस्सा है। योगेन्द्र शुक्ल अपने खेतिहर मां-बाप की इकलौते संतान थे।बचपन में ही हैजा से इनकी मां का निधन हो गया था। योगेन्द्र शुक्ल ने अपनी शुरुआती पढ़ाई लालगंज स्कूल में की और फिर अपने चाचा के साथ मुज़फ़्फ़रपुर में रहकर उन्होंने अपनी आगे की पढ़ाई भूमिहार ब्राह्मण कॉलेजिएट स्कूल से की।
यह वही समय था,जब मुज़्ज़फ़रपुर में हुए बम कांड को लेकर खुदीराम बोस की चर्चा हिंदुस्तान भर में हो रही थी।यहीं योगेन्द्र शुक्ला दादा कृपलानी के संपर्क में आये और उनसे प्रभावित होकर वे करांची चले गये,वहां उन्होंने उनके बीमार पिता की जमकर सेवा की,लेकिन ख़ुद ही बीमार हो गये।योगेन्द्र शुक्ला के सेवा भाव की चर्चा गांधी जी और सरदार पटेल तक पहुंची और योगेन्द्र शुक्ल इन दोनों विभूतियों के दुलारे बन गये।

बाद में योगेन्द्र शुक्ल कृपलानी के साथ बनारस चले गये।इसी बीच गांधीजी ने असहयोग आंदोलन छेड़ दिया।इस आंदोलन के दौरान प्रिंस ऑफ़ वेल्स के आगमन का विरोध करने के कारण कृपलानी जी अपने बारह साथियों के साथ गिरफ़्तार कर लिये गये,बाद में योगेन्द्र शुक्ल को भी गिरफ़्तार करके जेल भेज दिया गया।
जेल से छूटने के बाद योगेन्द्र शुक्ल फिर से कृपलानी जी के आश्रम आ गये।इस आश्रम में रहकर उन्होंने हर छोटे-छोटे काम को अंजाम देना सीखा और छोटे से छोटे व्यक्ति के साथ भी विनम्रता के साथ पेश आने की कला सीखी। एक बार जब किसी ने गांधी जी से यह शिकायत कर दी कि योगन्द्र शुक्ल प्रार्थना सभा में शामिल नहीं होते, तो गांधी जी ने उस शिकायतकर्ता को जवाब देते हुए कहा था, जो बाक़ियों को प्रार्थना से मिलता है,वह योगेन्द्र को अपनी सेवा से हासिल हो जाता है।


गांधी जी का बीरीकी के साथ अध्ययन करने के बाद योगेन्द्र शुक्ल इस नतीजे पर आये कि वह गांधी जी के अहिंसक तरीक़े से सहमत नहीं हैं। इसके बाद 1925 में हाजीपुर लौट आये।
योगेन्द्र शुक्ल क्रांतिकारियों के साथ हो गये और ब्रिटिश हुक़ूमत की नज़र में वह भी लाल क्रांतिकारी की सूची में शुमार कर लिये गये। उन्होंने क्रांति दल का रुख़ किया और फिर बाद में पंजाब चले गये। सरदार भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, राजेन्द्र लाहिरी, शचींद्र बख़्शी जैसे क्रांतिकारियों के साथ मिलकर उन्होंने देशभर के क्रांतिकारियों को संगठित करना शुरू कर दिया। सशस्त्र क्रांति के लिए उन्होंने हथियारों का जखीरा जमा कर लिया। कहा जाता है कि एक बार उस जखीरे को देखकर भगत सिंह भी चकित रह गये थे। भगत सिंह कई बार योगेन्द्र शुक्ल के यहां हाजीपुर आये थे और हर बार भगत सिंह का परिचय वह बतौर आम के व्यापारी कराते थे। बाद में हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन पार्टी की स्थापना की गयी। इसके प्रमुख चंद्रशेखर आज़ाद को बनाया गया और योगेन्द्र शुक्ल इस पार्टी के प्रमुख नायकों में से एक थे। 3 जुलाई 1929 को मौलनिया डकैती केस में योगेन्द्र शुक्ला का नाम आया और फिर उनके ख़िलाफ़ गिरफ़्तारी वारंट निकाल दिया गया।

शेरे बिहार शहीद योगेन्द्र शुक्ला।

यह वही दौर था, जब लाहौर षड्यंत्र केस में भगत सिंह वहां के सेंट्रल जेल में बंद थे। योगेन्द्र शुक्ला ने जेल का फाटक तोड़कर भगत सिंह को मुक्त कराने की योजना बनायी। इसके लिए उन्होंने चंद्रशेखर आज़ाद को बिहार आने की दावत दी, लेकिन जल्द ही भेद खुल गया और यह योजना स्थगित कर देनी पड़ी। शुक्ल जी को फ़रार होना पड़ा। उनके पीछे सीआईडी लगी हुई थी और ट्रेन में यात्रा कर रहे शुक्ल जी को जब यह पता चला कि वे सीआईडी को हाथ लगने ही वाले हैं, उन्होंने ट्रेन से छलांग लगा दी और सीआईडी वालों की ज़द से बाहर हो गये। इसी तरह जब एक बार शुक्ला जी सोनपुर पुल पर चारों तरफ़ से पुलिस से घिर गये और उनपर ताबड़तोड़ गोलियां बरसायी जाने लगीं, तब उन्होंने नदी में छलांग लगा दी और 14 मील तक तैरते हुए उन्होंने अपनी जान बचायी और मारुफ़गंज में उन्होंने रात बिताकर मोकाम, सिमरिया, बेगुसराय से होते हुए हाजीपुर लौट आये।

शहीद बैकुंठ शुक्ला।

एक इसी तरह की घटना 11 जून 1930 की है,जब रामानंद सिंह नाम के एक ग़द्दार ने उन्हें सोये हुए ही गिरफ़्तार करवा दिया था। सोयेवस्था में ही उनका हाथ-पैर बांध दिया गया था और दो रिवॉल्वर के साथ उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया था। उनसे बाक़ी क्रांतिकारियों के बारे में जानकारी जुटाने के लिए लगातार टॉर्चर किया जाता रहा, लेकिन उनके मुंह से कुछ भी नहीं निकलवाया जा सका। उन्हें कई मुकदमों में कुल मिलाकर 22 साल की सज़ा हुई। 1932 में उन्हें कालेपानी की सज़ा सुनायी गयी। उन्होंने अंडमान में भी अंग्रेज़ों की नाकों में दम किये रखा। यहीं रहते हुए उनकी आंखों की ज्योति कमज़ोर हो गयी और कई बीमारियों के वे शिकार हो गये।बाद में 1935 के गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट के तहत हुए चुनाव में 1937 में बिहार में कांग्रेस की सरकार बनी और श्रीकृष्ण सिंह बिहार के प्रधानमंत्री बने(उस समय मुख्यमंत्री नहीं,बल्कि प्रधानमंत्री होता था)।तमाम क़ैदियों को रिहा कर दिया गया।बाद में अंग्रेज़ों की ही-हुज्जत के बाद योगेन्द्र शुक्ल भी रिहा कर दिये गये।

शहीद बैकुंठ शुक्ला व शेरे बिहार योगेन्द्र शुक्ला।

इस बीच योगेन्द्र शुक्ल क्रांतिकारियों के साथ क़दम से क़दम मिलाकर क्रांति को धार दे रहे थे। फिर 8 अगस्त को 1942 की क्रांति ने दस्तक दी और और योगेन्द्र शुक्ल ने बढ़-चढ़कर उसमें हिस्सा लिया।उन्हें गिरफ़्तार करके हज़ारीबाग़ जेल में डाल दिया गया।यहां उनके साथ बसावन सिंह, श्यामनंदन वर्मा, नंदन मिश्र, सूरज नारायण सिंह, जयप्रकाश नारायण, गुलाली लोहार आदि भी क़ैद किये गये थे। एक रात जेल से भागने की गुप्त योजना बनायी गयी और उस योजना के तहत जयप्रकाश नारायण समेत कई लोगों को चाहरदीवारी पार कराकर वह ख़ुद भी जेल से फ़रार हो गये। 1947 में देश आज़ाद हुआ, योगेन्द्र शुक्ल भी चुनाव लड़े, मगर वह कामयाब नहीं हो पाये, क्योंकि चुनावी राजनीति के रास्ते पर चलने के आदी योगेन्द्र शुक्ल नहीं थे। उन्हें तो क्रांति का सपाट और विरोचित रास्ते का पता ठिकाना मालूम था। इस रास्ते के वे नायक थे।

शेरे बिहार शहीद योगेन्द्र शुक्ला।

क्रांतिकारी योगेन्द्र शुक्ल की कई कहानियां आज भी हाजीपुर के लोगों के बीच कही सुनी जाती है। मगर, योगेन्द्र शुक्ला के जीवन की यह कहानी यहीं पूरी नहीं होती। उनके भजीता बैकुंठ शुक्ल भी उनके ही पदचिह्नों पर चलते हुए क्रांति की राह अपना ली थी।
योगेन्द्र शुक्ल के साथ रहते हुए बैकुंठ शुक्ल उन तमाम क्रांतिकारी सिद्धांतों और मक़सदों से अच्छी तरह वाक़िफ़ हो चुके थे, जिनका एकमात्र लक्ष्य भारत की आज़ादी थी, लेकिन इसी दरम्यान भगत सिंह को अपने दो साथियों, राजगुरु और सुखदेव के साथ फांसी दे दी गयी थी और इस फांसी तक पहुंचाने के पीछे जिस शख़्स की गवाही थी,नउसका नाम फणीन्द्र नाथ घोष था। बैकुंठ शुक्ला बेहद परेशान हो गये थे और उन्होंने तय कर लिया था कि जबतक फणीन्द्रनाथ घोष को मार नहीं डालते, तबतक उन्हें चैन नहीं आयेगा। आख़िरकार उन्होंने मौक़ा पाकर एक दिन फ़णीन्द्र नाथ घोष पर गोलियों की बरसात कर दी और वह वहीं ढेर हो गया।बैकुंठ शुक्ल का लक्ष्य पूरा हो चुका था। अंग्रेज़ी हुक़ूमत ने उन्हें गिरफ़्तार कर लिया। हत्या का मुकदमा चलाया और अंतत: 1934 में उन्हें गया के सेंट्रल जेल में फ़ांसी दे दी गयी। बलिदान के इतिहास में योगेन्द्र शुक्ला और बैकुंठ शुक्ला दोनों के नाम अमर है और आने वाली पीढ़ियां इनकी प्रेरणास्पद कहानियों से प्रेरित होती रहेंगी।
इस संबंध स्थानीय पैक्स अध्यक्ष इंद्रजीत शुक्ला उर्फ पप्पू शुक्ला, देवमित्र शुक्ला, सोनू शुक्ला, चंचल शुक्ला, मनोज शुक्ला, नरेश प्रसाद कुशवाहा, भाजपा के अमरेश कुमार, राजन कुमार, नंदकिशोर शर्मा आदि लोगों ने लालगंज स्टेशन का नाम इन्हीं दोनों विभूतियों के नाम पर रखने की मांग की है। साथ ही इन विभूतियों की याद लालगंज के चौक चौराहों का नाम रखने की मांग की है।

उपेन्द्र चौधरी, वरिष्ठ पत्रकार (दिल्ली)


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