वैशाली मुख्यालय हाजीपुर और गणतंत्र की जननी वैशाली के बीच का एक छोटा सा कस्बा लालगंज प्राचीन काल से अपनी गौरवगाथा के लिए जाना जाता है। इस छोटे से कस्बों की बड़ी गौरव गाथा पौराणिक कथाओं, धर्म ग्रंथों से लेकर ऐतिहासिक धरहरों में देखने को मिलती है। जिस ऋषि के नाम पर इस नगर का नामकरण हुआ था उस महर्षि श्रृंगी की तपोभूमि पर बना उनका स्मारक अब मिटने की कगार पर है।
लालगंज नगर क्षेत्र के श्रृंगी नगर में प्रखंड कार्यालय भी है। जहां के नाका नम्बर 2 के पास श्रृंगी ऋषि का स्मारक स्थल अब भी धूल फांक रहा है। बताया जाता है कि इन्हीं ऋषि के नाम पर इस क्षेत्र का नाम श्रृंगी नगर रखा गया था।
श्रृंगी ऋषि की साधना की कहानी बताने से पहले आइये उनका संक्षिप्त परिचय कराते है। आदि महाकाव्य बाल्मीकि रामायण में वर्णित है कि अंग प्रदेश में राजा रोमपाद के यहाँ श्रृंगी ऋषि का विवाह हुआ। अयोध्या के राजा दशरथ को जब सन्तान नहीं हो रहा था तब वे कुल गुरु वशिष्ठ की सलाह पर अंग प्रदेश पहुँचे। वहाँ उन्होंने श्रृंगी ऋषि से पुत्रकामेष्टि यज्ञ कराने का अनुरोध किया। उसी यज्ञ के फलस्वरूप राजा दशरथ को श्रीराम, लक्ष्मण भारत, शत्रुघ्न चार पुत्र हुए।
ततपश्चात राजा दशरथ ऋषि के साथ नारायणी नदी किनारे बसे इसी लालगंज में पहुँचे थे। एक बार जनकपुर जाने के क्रम में गुरु विश्वामित्र ने लालगंज पहुँचने पर श्रीराम को श्रृंगी ऋषि के उपकार के बारे में भी बताया था। ऐसी दन्त कथाएं भी है। और इस तरह श्रृंगी नगर ज्ञान और अध्यात्म का केंद्र बन गया।
करीब 1957-58 में भारत सरकार से सम्मानित और टेकारी राज दरबार के तत्कालीन राज पुरोहित पंडित सुदामा मिश्रा शास्त्री की देख रेख में लालगंज के जलालपुर में नारायणी नदी के तट पर विष्णु महायज्ञ का आयोजन हुआ था। इस यज्ञ में पंडित सुदामा जी को मिली दक्षिणा की राशि से संतों की प्रेरणा पर उन्होंने बनारस से श्रृंगी ऋषि की सफेद संगमरमर की प्रतिमा मंगवायी। कई वर्ष बीत जाने के बाद तत्कालीन बीडीओ ज्ञान प्रकाश दुबे पंडित जी के उत्तराधिकारी त्र्यम्बकेश्वर मिश्रा और धनन्जय मिश्रा आदि से मिलकर प्रखण्ड परिसर में आयोजित विकास मेले के दौरान एक छोटे से स्मारक में मूर्ति की स्थापना करवायी। हालांकि वर्तमान परिदृश्य में यह स्मारक स्थल अपनी दुर्दशा पर आंसू बहा रहा है। जिसकी सुधि न तो सरकार को है और न ही स्थानीय प्रशासन को।
श्रृंगी ऋषि के स्मारक से कुछ दूरी पर अंग्रेजों की कोठी भी थी। जो करीब 1605 में सिंगिया इंडिगो फैक्ट्री के नाम से जाना जाने लगा। इस कोठी में कई अंग्रेज अधिकारी का कब्र भी बना था जो अब ध्वस्त हो चुका है। इस परिसर में अंग्रेजों ने अपने घोड़ों के लिए एक अस्तबल भी बनाया था। बताया जाता है कि आसपास के इन खेतों में अंग्रेज अधिकारी जबरदस्ती यहाँ के लोगों से नील की खेती करवाते थे। यह लालगंज इलाके का सबसे बड़ा कुआँ है। उस वक्त इसी कुएं से नील की खेती के दौरान सिंचाई की जाती थी। अब यहां सब्जियों की खेती होती है। सिंगिया कोठी के नाम से प्रसिद्ध यह भवन बाद में मरम्मत कर गंडक परियोजना के हवाले कर दिया गया।
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