वैशाली जन का प्रतिपालक, गण का आदि विधाता
जिसे पूजता विश्व आज, उस प्रजातंत्र की माता
रुको पथिक एक क्षण! मिट्टी को शीश नवाओ
राज्य सिद्धियों की समाधि पर, फूल चढ़ाते जाओ..
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की यह पंक्ति महज़ उनकी कविता भर नहीं…बल्कि उनकी इस कविता में मुस्कुराता और अतीत का गर्व कराता बिहार का वह वैशाली ज़िला है…जिससे राष्ट्रकवि का एक अटूट रिश्ता था…और इस अटूट रिश्ते के बूते बिहार के वैशाली ज़िले का लालगंज गर्व कर सकता है…और इस गर्व का आधार है- लालगंज का निबंधन कार्यालय।
मगर, इस गौरवशाली परंपरा से रौशन होते इस दफ़्तर के भीतर इतिहास के मालूमात का अंधेरा पसरा है…जिस कुर्सी पर कभी राष्ट्रकवि दिनकर विराजमान थे…उस कुर्सी पर विराजे मौजूदा अफ़सर को पता तक नहीं कि कभी यहां कविता का सूर्य दमकता था।
मगर इस दफ़्तर के दरो दीवार के बीच कभी कविता की लय गूंजी थी….दिनकर के स्वर लहराये थे…इस दफ़्तर के सुनहरे अतीत के बावजूद रजिस्ट्रार कहते हैं कि इसका कोई सुबूत विभाग के पास नहीं ।
मगर इस निराश करते बयान की हक़ीक़त को लालगंज के श्री शारदा सदन पुस्तकालय एक उम्मीद बख़्शती है…
दो फ़रवरी 1936 के विजिटर रजिस्टर में राष्ट्रकवि के हस्ताक्षर के साथ उनके लिखे दो पन्ने इस बात का इत्मिनान देते हैं कि दिनकर कभी यहां आये थे….मगर हैरानी की बात है कि आज उन्हें न तो उनका विभाग याद कर रहा है और न ही पुस्तकालय के ट्रस्टी….ऊपर से जिनके कंधों पर शिक्षा की पालकी है….उन्हें भी उस रास्ते का पता नहीं,जहां से होकर कोई दिनकर राष्ट्रकवि बन गया था।
लेकिन इस निराशा के बीच भी एक रिटायर्ड जज इस बात की उम्मीद जगाते हैं कि दिनकर यहां की स्मृति में ही नहीं अपने पूरे अस्तित्व के साथ हैं।
दिनकर हिन्दी साहित्य के आकाश के एक ऐसे चमकते तारे हैं,जिनके दिल-ओ-दिमाग़ में राष्ट्र चमकता है…जिनकी कविताओं में राष्ट्र को दिशा दिखाती रौशनी है…और आम लोगों के सीने में सहज उतरता खांटी राष्ट्रवाद है।
ऐसे दिनकर की कभी कर्मभूमि रही इस वैशाली में हिन्दी की हालत अच्छी नहीं है….और यह बात के पते ठिकाने दफ़्तर के दीवारों पर चहकते ये स्लोगन है…जिसके हिज्जे तुतला रहे हैं और व्याकरण लंगड़ा रहे हैं।
सवाल उठता है कि क्या ग्वोबलाइजेशन के इस दौर में हिंदी इतनी लाचार हो गयी है कि इसे इसके अपने ही सही से इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं…इस सवाल को नकारा तो नहीं जा सकता…मगर अंग्रेज़ी के बीच भी बाज़ार कहता है कि हिंदी के बिना ग्राहक और बेचने वालों का काम भी नहीं चल पा रहा..यानी अपने ग्रामर से अलग होते हिंदी अब आम लोगों की भाषा ज़्यादा है…मगर यह बात बेचैनी पैदा करती है कि हिंदी का राष्ट्रकवि अब महज़ ख़ास लोगों के ख़ास कवि होते जा रहे हैं।